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Ajay Singla

Classics

5  

Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -२३५; अक्रूर जी की व्रज यात्रा

श्रीमद्भागवत -२३५; अक्रूर जी की व्रज यात्रा

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श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित 

अक्रूर जी रथ पर सवार हुए 

मथुरा से वे नंदबाबा के 

गोकुल की और चल दिए।


अक्रूर जी परम भाग्यवान थे 

यात्रा करते समय व्रज की 

परिपूर्ण हो रहे मार्ग में 

भक्ति में भगवान् कृष्ण की।


सोच रहे कि मैंने कौन सा 

शुभ कार्य किया है ऐसा 

ऐसी कौन सी तपस्या की और 

कौन सा ऐसा दान किया।


जिसके फलस्वरूप दर्शन करूंगा 

मैं आज भगवान् कृष्ण के 

मैं तो बड़ा विषयी हूँ 

कैसे मुझे कृष्ण की कृपा मिली ये।


बड़े बड़े सात्विक पुरुष भी जिनके 

गुणों का गान हैं करते रहते 

वो भी दर्शन न कर पाते तो 

अत्यंत दुर्लभ ये तो मेरे लिए।


परन्तु मुझ अधम को फिर भी 

कृष्ण के दर्शन होंगे ही 

अवश्य ही जो अशुभ मेरे सारे 

नष्ट हो गए आज सभी।


मेरा जन्म आज सफल हो गया 

क्योंकि उन चरण कमलों में 

नमस्कार करूंगा मैं, जिनका 

योगी भी बस ध्यान ही कर पाते।


अहो, बड़ी ही कृपा की है 

मेरे ऊपर आज कंस ने 

उसी के भेजने से ही 

दर्शन पाऊंगा मैं कृष्ण के।


ब्रह्मा, शंकर, इंद्र आदि सब 

बड़े बड़े देवता हैं जो 

जिन चरणकमलों की उपासना करते 

और भगवती लक्ष्मी जी तो।


एक क्षण के लिए भी 

जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं 

जिनकी आराधना में संलगन रहे 

प्रेमी भक्त और बड़े बड़े ज्ञानी भी।


भगवान् के वही चरणकमल 

गोओं को चराने के लिए 

ग्वालबालों के साथ में 

विचरते रहते हैं वन वन में।


उनका मैं दर्शन करूंगा

और दर्शन करूं मुखकमल का उनके 

भगवान् विष्णु ही ये लीला कर रहे 

पृथ्वी का भार उतरने के लिए।


वे सम्पूर्ण लावण्य के धाम हैं 

मूर्तिमान निधि हैं सौंदर्य की 

मेरी आँखों का फल मिल जायेगा 

उनके दर्शन से आज सहज ही।


उनके गुण, कर्म और जन्म की 

लीला का वाणी जब गान करे 

जीवन की स्फूर्ति होने लगती 

संसार में तब उस गान से।


अपवित्रताएं धुल जातीं सब 

पवित्रता का साम्राज्य आ जाता 

वो ही यदुवंश में अवतीर्ण हुए 

ऐसा माहात्म्य जिनके गान का।


देवताओं का कल्याण करने को 

वो ही व्रज में निवास कर रहे 

वहीँ से अपने पवित्र यश का 

वे तो विस्तार हैं करते।


देवता लोग भी इस मंगलमय 

यश का गान करते हैं रहते

वे ही एकमात्र आश्रय हैं 

बड़े बड़े लोकपालों के |

 

वे ही सबके परम गुरु हैं 

और रूप सौंदर्य उनका 

तीनों लोकों के मन को मोह ले 

मैं आज उन्हें अवश्य देखूँगा।


उनके चरण पकड़ लूँगा मैं 

अच्छे अच्छे शकुन दिख रहे मुझे 

कृष्ण बलराम को जब देखूँगा 

मैं तो कूद पडूंगा रथ से।


उनके चरण पकड़ लूँगा मैं 

बड़े बड़े योगी ह्रदय में 

जिन चरणों का ध्यान हैं करते 

मैं तो प्रत्यक्ष पा जाऊँगा उन्हें।


प्रणाम करके मैं उन दोनों को 

उन चरणों पर लोट जाऊँगा 

और एक एक ग्वालबाल के 

चरणों की फिर वंदना करूंगा।


चरनकमलों पर सिर रखूंगा जब मैं 

कृष्ण करकमलों को अपने 

मुझ पर कृपा करने को 

क्या मेरे सिर पर रख देंगे।


इंद्र और दैत्यराज बलि ने 

उन्हीं चरणकमलों की भगवान् के 

पूजा की भेंट समर्पित करके और 

प्राप्त किया इन्द्रपद उन्होंने।


उन्ही करकमलों के स्पर्श से 

रासलीला के समय कृष्ण ने 

व्रजयुवतियों की सारी 

थकान मिटा दी थी उन्होंने।


मैं तो कंस का दूत हूँ 

उसी के कहने से वहां जा रहा 

शत्रु न समझ बैठें कहीं 

इससे कृष्ण मुझे अपना।


ऐसा तो वे समझ न सकें 

निर्विकार हैं क्योंकि वे तो 

सम हैं, अच्युत हैं, सर्वज्ञ हैं 

चित के बाहर और भीतर भी वो।


तब मेरी शंका व्यर्थ है 

खड़ा हो जाऊँगा मैं हाथ जोड़कर 

मुस्कुराते हुए प्यार भरी दृष्टि से 

देखेंगे फिर कृष्ण मेरी और।


उस समय जन्म जन्म के 

अशुभ संस्कार नष्ट होंगे मेरे 

 मैं निःशंक हो सदा के लिए 

मग्न हो जाऊँगा परम आनंद में।


मैं उनके कुटुम्ब का हूँ

और उनका हित चाहता मैं 

उनके सिवा और कोई मेरा 

आराध्यदेव भी नहीं है ।


ऐसी स्थिति में मुझे पकड़कर 

अवश्य ही ह्रदय से लगा लेंगे 

उनका आलिंगन प्राप्त होते ही 

छूट जायेंगे कर्म बंधन मेरे।


आलिंगन मेरा जब कर चुकेंगे 

और मैं हाथ जोड़कर अपने 

सामने उनके खड़ा होऊंगा 

इस प्रकार तब कहेंगे वे मुझे।


सम्बोधित करेंगे चाचा अक्रूर कहकर 

जीवन सफल हो जायेगा मेरा 

श्री कृष्ण का न कोई प्रिय, न अप्रिय 

न सुहृदय न कोई शत्रु उनका।


उनकी उपेक्षा का पात्र भी कोई नहीं 

फिर भी कल्पवृक्ष के जैसे 

कोई आकर जो याचना करता 

मुंहमांगी वास्तु पता है वैसे।


कृष्ण को जिस प्रकार कोई भजता 

उसे उसी रूप में भजते हैं वे 

अपने प्रेमी भक्तों को ही 

पूर्ण प्रेम करते हैं वे।


सिर झुकाकर खड़ा हो जाऊँगा 

विनीत भाव से उनके सामने 

कृष्ण अवश्य की मुस्कुराते हुए 

ह्रदय से लगा लेंगे मुझे।


दोनों हाथ पकड़कर मेरे 

घर के भीतर ले जायेंगे 

वहां मेरा सत्कार करेंगे 

और कुशल भी वे पूछेंगे।


श्री शुकदेव जी कहते हैं परक्षित 

शवफलकनन्दन अक्रूर मार्ग में 

इस चिंता में डूबे डूबे 

रथ से नंदगांव पहुँच गए।


भगवान् के चरणचिन्हों का दर्शन किया 

अक्रूर जी ने गोष्ठ में 

कमल, यव, अंकुश आदि चिन्ह 

पृथ्वी की शोभा बढ़ रही उनसे।


ह्रदय में आनंद हुआ इतना 

उन चिन्हों का दर्शन करके 

वो इतने विह्वल हो गए 

अपने को संभाल न सके।


प्रेम में रोम रोम खिल गया उनका 

नेत्रों में आंसू भर आये 

रथ से कूदकर वे उस समय 

लोटने लगे उस भूमि में।


कहने लगे, अहो ! यह तो 

चरणों की रज है, प्रभु के 

व्रज में जब पहुँच गए, देखा 

दोनों भाई गाय दुह रहे।


श्यामसुंदर पीतांबर धारण किये 

नीलांबर धारण किये बलराम जी 

नेत्र कमल समान खिले हुए 

खान थे दोनों सौंदर्य की।


अक्रूर देखें, आदि कारण जगत के 

संसार की रक्षा के लिए 

अवतीर्ण हो कृष्ण, बलराम रूप में 

अन्धकार जगत का दूर कर रहे।


उन्हें देख रथ से कूद पड़े 

चरणों में लोट गए दोनों के 

भगवान् के दर्शन से उनके 

नयन आंसुओं से भर गए।


उत्कण्ठावश गला भर आने के कारण 

नाम भी अपना बता न सके 

शरणागत वत्सल भगवान् कृष्ण 

उनके मन का भाव जान गए।


अक्रूर जी को उठाकर उन्होंने 

लगा लिया अपने ह्रदय से 

इसके बाद बलराम जी ने भी 

गले से लगाया था उन्हें।


एक हाथ उनका कृष्ण ने पकड़ा 

दूसरा हाथ बलराम जी ने 

ऐसे पकड़कर दोनों भाई 

उनको घर के भीतर ले गए।


कुशल मंगल पूछकर उनकी 

बैठाया आसान पर, पैर पखारे 

पैर दबाकर थकान दूर की 

भोजन कराया बड़ी श्रद्धा से।


नन्द बाबा जी ने आकर पूछा 

अक्रूर जी कैसे दिन कट रहे 

निर्दयी कंस के जीते जी, जिसने 

बच्चों को मारा अपनी बहन के।


आप लोग तो उनकी प्रजा हैं 

आप सुखी तो रह ही नहीं सकते 

अक्रूर जी की कुशल मंगल पूछी 

नन्द बाबा ने मधुर वाणी में।


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