जान -ए -लखनऊ
जान -ए -लखनऊ
अपने शहर से कुछ मोहब्बत सी है
इबादत इस ज़मीन की कुछ बेहद सी है
नाजाने देश के कौन से कोने से
खींच लाया था मुझे अपनी ओर
कही जीने से पहले मर न जाऊँ
इसीलिए अपना बनाया था मुझे
अब कुछ इस कदर मोहब्बत होगई है
इस जन्नत को मुझसे की लाख कोशिश कर ले
तबभी खुद से दूर होने की इज़ाजत
देकर भी रोक लेता है मुझे
शायद अब इसकी यह चाहत सी है
की यह जाना जाये कुछ और मुझसे
कही कुछ मेरा फ़र्ज़ भी है
की इसकी मशहूर बातों में
एक हमारा जिख्र भी हो
फिर अपनी शान से यह जान-ए-लखनऊ
अदब से अपनी मोहब्बत पर गर्व करता देखे।
