जड़ें
जड़ें
आसमान में तैरती इक लड़की दिखाई दी,
शब्द जिसके झर रहे थे, झरनों की तरह,
गिर भी रहे थे।
झरना वो धरती तक पहुंचते पहुंचते गिरते गिरते,
तब्दील हो रहा था किसी लंबी जड़ वाले पेड़ में।
शब्द बन रहे थे पत्ते,
जो धरती पर गिरकर झड़ नहीं झड़ रहे थे।
गिरे हुए पीले पत्ते तीखे भी थे और कड़वे भी।
इन्हें अनुभव तो करते हैं हम,
लेकिन कहां देखते हैं उस पेड़ की लंबी जड़ों को,
जो हमारे ही मुंह से उगी हैं।
उन पत्तों का पीलापन, तीखापन और कड़वापन, हमारी जुबान की देन है।
और हम कौन?