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Chandresh Kumar Chhatlani

Abstract

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Chandresh Kumar Chhatlani

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दिशाएं

दिशाएं

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भाषा बनी थी संवाद के लिए,
हमने विवादों को तरजीह दे दी।

समाज बना था, आज को सम बनाने के लिए,
हमने भेदभावों की विषमता को गले लगा लिया।

घर बने थे, परिवार बसाने को,
हमने दीवारों को खड़ी कर दिया।

विज्ञान था विकास के लिए हमारे,
हमने ही उसे विनाश की ओर मोड़ दिया।

धर्म थे आंतरिक शुद्धि के लिए,
हमने उनमें भी बुद्धि मिला दी।

जो एक थे इक पुल बनाने को,
इक दूजे को ही खाई में ढकेल दिया।

प्रेम बनाया था प्रकृति ने, मन के जीवन सा,
हमने शरीर के मिलन तक सीमित कर दिया।

हर डोर में इक गांठ लगी है।
जोड़े रखेगी हमें उस दिन तक,
जब तक गांठ है।

और, उसके बाद...

दिशाहीन रह गए हम,
इक नई दिशा में चले जाएंगे,
जो नियति ने नियत कर रखी है।

और,
जब हम ही नहीं होंगे,
तो गांठ कैसी?


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