अपनी किताब
अपनी किताब
कुछ पन्ने शिकायतों के
फट कर जाने कहां खो गए।
कुछ नखरों के अल्फाजों पर,
स्याही है बिखरी हुई।
नफरत के पन्नों में,
अक्षर मिल गए एक-दूसरे से,
अब पढ़ने में नहीं आते।
प्यार के पन्ने,
हमेशा से कोरे ही हैं।
दूसरों की बातों पर हामी भरते
पन्ने
अब भी फड़फड़ा रहे हैं।
और शायद ऐसे ही,
फटी हुई जिल्द की ज़िंदगी की किताब,
यूं ही बंद हो जाती है।
रखी रह जाती है,
जहां न शेल्फ है, ना लाइब्रेरी।
