संस्कृति
संस्कृति
किसी अनादि यात्रा को लिखना,
जैसे मौन समय की संधियों में उतरकर
किसी भूले हुए स्वर को फिर से सुनना हो,
या प्राचीन शिलाओं पर उकेरी
किसी विलुप्त लिपि को धैर्य से पढ़ना।
यह सिर्फ इतिहास नहीं,
बल्कि उस चेतना का अन्वेषण है
जो रज-कणों में समाहित होकर भी
अनंत ब्रह्मांड की तरह विस्तार पा चुकी है।
हर धूल का कण,
बीते युगों का गवाह,
जिसमें अतीत की स्मृति, वर्तमान की धड़कन
और भविष्य की आकांक्षा एक साथ स्पंदित है।
यह त्रिकाल का संगम है,
जहाँ सब कुछ एक ही ऊर्जा में समरस होता है,
जैसे उपनिषदों में झलकता आत्मज्ञान
या लोककथाओं में सजीव इतिहास।
हाँ यह सच है कि,
किसी भी संस्कृति को साधना
मानो किसी भूमिगत सुरंग में
दीप लेकर उतरना हो,
जहाँ अंधकार केवल अतीत का नहीं,
बल्कि अपने भीतर की अपरिचित परछाइयों का भी होता है।
कभी किसी मोड़ पर
मिलती है कोई सुप्त सभ्यता,
शांत, परन्तु जाग्रत,
अपने वंश की वाणी को सँजोए।
तो कहीं एक अधीर संस्कृति
उषाकाल की ओर निहारती प्रतीक्षा में मिलती है,
जैसे सत्यमेव जयते की प्रतिध्वनि
अपने आरोह की राह देखती हो।
संस्कृति को जानना,
समुद्र-तट पर लिखा वह नाम है,
जो हर लहर के बाद
और भी स्पष्ट होकर लौट आता है।
यह सतह की लिपि नहीं,
बल्कि आत्मा में उतरती कोई अदृश्य धारा है,
जो काल की सीमाओं से परे
पुरखों के गीतों और विस्मृत आख्यानों में जीवित रहती है।
यह स्मृति और अनुभूति का सामूहिक चित्त है,
जहाँ एक-एक मोड़
नए प्रश्नों और पुरानी पुकारों से गूंजता है।
हर युग कोई नई धारा लेकर आता है,
और हर धारा पुकारती है,
"पहचानो वह कम्पन
जो मिट्टी में भी अमर है।"
संस्कृति को रचना,
अपने ही बंधनों से ऊपर उठकर
उस मौन को सुनना है
जो न शब्द है, न ध्वनि,
बल्कि सनातन की अनुगूँज है।
यह लेखनी नहीं, एक साधना है,
यह सृजन नहीं, एक विस्मरण से मुक्ति है।
यह निर्वाण की ओर उठाया गया वह पहला कदम है,
जो आत्मा को अनादि से जोड़ता है।
