भावशून्य
भावशून्य
जब हृदय भेदते सर्जन को,
कोई सुंदर कहता है।
जब रोते का चित्र देख कर,
कोई दुःखी न होता है।
जब पीड़ा को शृंगार समझ,
सिर हिला के हँसते हैं।
जब क्रंदन की गाथा पे,
लोग प्रशंसा करते हैं।
आँसू भी रंगों में ढलकर,
हैं सौंदर्य कहे जाते।
और हृदयहीन दृष्टिवान,
वेदना में सुख हैं पाते।
तब सोचें, ऐसा मन लेकर,
कौन मनुष्य कहलाता है?
भावशून्य, नयन पत्थर से,
क्या मानव बन जाता है?
