STORYMIRROR

Soniya Khurania

Abstract

4  

Soniya Khurania

Abstract

मेरे चेहरे पर सुकून था

मेरे चेहरे पर सुकून था

4 mins
539

सत्य पर आधारित बेहद कडवी रचना,

कल्पना खूबसूरत होती है, ज़िंदगी भयावह।


कल एक विडियो देखा,

जिसमें एक पुलिस वाला पिट रहा था,

और पीट रही थी भीड,

मुझे हमेशा घबराहट होती भीड

का ये भयावह रूप देखकर,

जब भीड कानून अपने हाथ में

लेती है,और किसी को यूँ उसके

किए की सज़ा देती है,

तो मुझे बहुत तकलीफ होती है,

मगर आज मेरे चेहरे पर सुकून था।


क्योंकि यहाँ बात कुछ और थी,

बेशक पीट रही थी भीड, और भीड का

कोई चेहरा नहीं होता,

और कानून को यूँ अपने हाथों में

लेना किसी तौर जायज़ नहीं,

मगर आज मेरे चेहरे पर सुकून था।


ये सुकून मेरी संवेदनहीनता नहीं,

ना ही मैं उस भीड की मनोवृत्ति

की समर्थक हूँ,,

ये सुकून एक इंसान के भीड द्वारा

पीटे जाने पर नहीं था,

ये सुकून एक वर्दी वाले गुंडे के

पीटे जाने का था,

हाँ आज मेरे चेहरे पर सुकून था।


और ये हजारों-हजार मन में भरते

चले जाने वाले वर्दी वालों की गुंडई के

सुने और देखे किस्सों का नतीजा था,

जो आज सुकून के रूप में मेरे

चेहरे पर था।


देखे हैं मैंने अनगिनत विडियो

पुलिस की बर्बरता के,

बेगुनाह,बेकसूर मासूम शहरियों

के साथ दुर्व्यवहार के,

स्कूल-कालेज तक के छात्र-छात्रायों

को बिना कुसूर पीटते हुए,

सुने हैं मैंने किस्से कि रकम लेकर

तय होता है कि कस्टडी में लिए लोगों

को कितना पीटा जाना है,

तो आज मेरे चेहरे पर सुकून था।


कई बार देखा है मैंने सडक पर

चलते शरीफ शहरियों पर छोड

दिए जाते पुलिस के हाथ,

के चटाक ! जवान होते लडकों

को ज़रा सी गलती पर लगा

देना दो-चार थप्पड, और उनका

हाथ जोडते रह जाना कि सर

हमने कुछ नहीं किया,

कभी भी,किसी को भी लगा देना

लाठी, पीट देना सरे राह,

और कसमसाकर रह जाना लोगों का,

हाँ आज मेरे चेहरे पर सुकून था।


धरने पर बैठे निहत्थे लोगों पर

लाठियाँ भांजना,

शांतिपूर्ण विरोध दर्ज कराने पर

लात-घूसों और थप्पडों-लाठियों

का बरसाना,

बालों का खींचे जाना,

खून बहते हुए लोगों पर भी तरस

नहीं खाना,

अपराधियों के नहीं शरीफों के मन

में डर बैठाना,

यूँ आज मेरे चेहरे पर सुकून था।


और एक स्मृति समय के पन्नों पर,

वो शादी के बाद ससुराल का घर

CIA Staff के सामने होना,

पहली मंज़िल पर रहना मेरा,

और मेरे आँगन की खिडकियों का

उस नरक की ओर खुलना,

दीवार के पार दिखाई देता था वो

भयावह मंज़र,

के छत नहीं थी वहाँ,

खुला मैदान था, और उसके

आगे चौकी,


ऐक पेड भी था, जिस पर उलटे

लटके दिखाई देते थे नंगे,

बिल्कुल

नंगे लोग,

और लाठियाँ बरसाते उनके नंगे

शरीर पर पुलिस वाले,

मुझे याद है जब पहली बार मैंने

ऐसा होते हुए देखा था तो मैं

चकराकर बेसुध हो गई थी,

मगर ये रोज़ की बात थी,


मेहंदी लगे हाथों से मैं पोंछती

अपने आँसू,और बनाती तीज

त्यौहार पर मिठाइयाँ,

मगर रोते और सुबकियाँ भरते हुए,

क्योंकि मेरे लिए ये बिल्कुल नया था,

मैं खाना खाने बैठती और चीखें

पडती कानों में, बिलबिलाती,कराहती चीखें,

तो कौर मुँह का मुँह में ही रह जाता,

मेरे ससुराल वाले आदी हो चुके थे

इस सबको देखने-सुनने के,

उन पर कोई असर नहीं होता,

और मुझे ना रातों को नींद आती

ना दिन को चैन,


उस मैदान में एक खाट पडी थी,

जिस पर किसी इंसान को उल्टा

लिटाकर उसका सर नीचे

लटकाया जाता,

पानी से भरे ऊँचे टब में,

और उसपर बैठ जाते तीन-चार

वर्दी वाले,बालों से पकडकर उसका

सर पानी में डुबोया जाता,

और इस दौरान पैरों पर लाठियों

से मारता रहता उसे एक पुलिस वाला,

उसकी चीखें मेरे कान फाड देतीं,

वहाँ इस तरह पिटते हुए एकबार देखी

मैंने एक औरत भी,

और पीटने वाले थे सब आदमी,


और एक रात,रात के करीब 12 बजे,

और दिनों से बहुत तेज आवाज़ें थीं,

जो पूरी गली को गुंजा रही थीं,

बंद खिडकियों से भी बहुत तेज़

आ रही थीं,

मैं रुक नहीं पाई,

भागकर खिडकी की ओट से देखा,

मेरी आँखे खुली की खुली रह गई,

जैसे दो डंडों पर चारों हाथ-पैर बांधकर

पकाया जाता है साबुत बकरा, 

ठीक वैसे ही बांधा गया था एक आदमी,

और पांच से छह पुलिस वाले पीट

रहे थे उसे बेतहाशा,

ना जाने किस किस तरह,


मैं देख नहीं पाई,

मेरी आँखें लगातार बरस रही थीं,

पाँव जम गए वहीं,

मैं सुन्न सी खडी रह गयी,

उसकी चीखों में एक आवाज़ आई,

साहब जी एकबार रोक दो,

एकबार रोक दो साहब जी,

उसके कपडों में मल निकल चुका था,


ये सुनकर ना जाने किस तरह मैं

कमरे तक आई,

और आधी रात तक कानों में उंगलियां

डाले बिस्तर पर पडी रही,

माना कि वो कुसूरवार रहे होंगे,मगर उनमें

कुछ बेकसूर भी रहे होंगे,

गोया कि ये सच किसी से छिपा नहीं कि

पुलिस बेकसूर को भी वैसे ही पीटती है

जैसे कि कुसूरवार को,

और उस पर रिहायशी इलाकों में

इस तरह की कार्यवाही ?

जहाँ बगल में बच्चों का एक

स्कूल भी चलता था,

और स्कूल के कमरों से भी दिखाई

पड़ता था यही मंज़र हर रोज़,


सच तो ये है कि बहुत कुछ और भी देखा,

मैंने उस जगह पर होते हुए उस दौरान,

लेकिन बता जो दूँ तो पड जाएगी

खतरे में कुछ अफसरों की कुर्सियाँ,

और मेरी जान।


इस भयावहता को देखकर मेरे बच्चों के

जन्म के बाद मैं यही

मन्नतें मांगती कि हे ईश्वर हमें यहाँ

से कहीं और शिफ्ट कर दो,

के मेरे बच्चे ये क्रूरता देखने से बच जाएं,

और ईश्वर ने सुनी मेरी,

मगर वो मंज़र मेरी यादों में जब

जब गहराता है,

मेरे मन और आँखों में खून उतर

आता है,


आज जब देखा कि

पिट रहा है पुलिस वाला,

तो मुझे वो सारे पुलिस वाले

पिटते नज़र आए,

जिन्हे मैं पीटते देखती आई

थी अब तक,

और हाँ आज बहुत सुकून था

मेरे चेहरे पर ये देखकर।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract