प्रेम की अग्नि परीक्षा
प्रेम की अग्नि परीक्षा


मैंने तुमसे प्रेम करते हुए
तुम्हारी प्रत्येक जिम्मेदारियों से प्रेम किया
मुझे बेहद प्रिय थी तुम्हारी साधारणता
मैंने महसूस किया था।
तुम्हारी नजरों में खुद को महफूज
मेरा स्नेह पवित्र था गंगा की तरह
तुमने गंगा के बहाव में
आये मैलाव से मेरी तुलना की।
मैं फिर भी चुप रही यह सोचकर की
तुम आ गये हो संसार के बहकावे में
मैंने इंतजार किया तुम्हारे मस्तिष्क में
गंगा की पवित्रता को पहचानने का
मैंने समझा था कि हमारा प्रेम सत्य हैं और
तुम केवल क्रोधित हो मुझसे
क्रोध भी केवल चरित्रहीन
लोगों द्वारा की गई कानाफूसी का
मैं इंतजार करती रही तुम्हारे व्यवहार परिवर्तन का
मेरे हृदय में प्रेम सदैव पनपता रहा
मैंने हद में रहकर तुम्हें बेहद प्रेम किया
मुझे लगा कि तुम्हारा क्रोधित बर्ताव केवल दिखावा है
पर तुम होते चले गये भीतर ही भीतर खोखले
तुम नकारने लगे मेरे हर स्वरूप को
जलन की लौं भी तो पनपने लगी थी तुम में
तुम्हें खलने लगी थी मेरी स्वतन्त्रता
तुमने अब मुझे तौलना शुरू कर दिया था
जगत की घिनौनी नजरों से
ना जाने कब तुम पूर्णतः परिवर्तित होते गये
मेरे प्रेम के पीछे जो क्रोध था
क्रोध इस बात का था कि तुम मेरे प्रिये थे
तुम तो मेरी रग रग से वाकिफ़ थे
फिर तुम क्युँ कैसे आ गए किसी के बहकाव में
क्या तुम्हें सच में नजर न आया,
मेरा मार्ग में तुमको खोजना
नहीं झलका हर क्षण तुम्हें ताकना मेरा
आभास तक न हुआ, तुम्हें देख
मेरा लज्जा में पलक झपकाना
तुम्हें नहीं आया नजर तुम्हारे बीमार पड़ते ही
मेरा पीड़ा में बौखला जाना
म
ेरे नेत्रों में तुम्हारे प्रति क्रोध तब तक था
जब तक तुम अवगत ना हो जाओ मेरी पवित्रता से
जब तक तुम पाक ना हो जाओ मेरे प्रेम में
जब तक तुम समझ ना सको
मेरे ह्रदय में छिपे सत्य प्रेम को
जिस दिन तुम्हारी नजरों में शर्म पाऊँगी
जिस दिन तुम सत्य से परिचित होंगे ओर
तुम्हारी आँखों में करुणा के भाव देखूँगी
उस वक़्त उस रोज मेरा आभासी क्रोध
स्वतन्त्र प्रेम में परिवर्तित होगा
आज तुम्हें बहुत दिनों पश्चात पाया मैंने
मेरे नयन थक चुके थे राह तकते
मेरा हृदय विवश हो चुका था गवाही सबूत देते
अंतिम उम्मीद में जब अब तुम मिले
मुझे उम्मीद थी कि विजय मेरे पवित्र प्रेम की होगी
तुम इतने निर्दयी कब से हो गये
तुमने तो अपना वजूद ही परिवर्तित कर लिया
जिन आंखों में प्रेम वापस आने की आशा थी
अब उनमें वास्तविक घृणा दिख रही हैं।
तुम इतने तो कठोर नहीं थे प्रिये
तुम तो अपने मार्ग में बढ़ते गये मुझे पीछे छोड़
मेरा कसूर क्या था केवल इतना बतला जाते
बहकावे में तुम आ गये थे
मैंने तो हर स्वरूप में तुम्हें ही चाहा
मैं क्या करूँ अब कुछ मुझे भी सुझाव दो न
तनिक सा जहर अमृत बताकर मुझे जलपान करा दो न
या हो सके तो कहीं जीवित ही दफना दो न
तुम निकल तो पड़े हो किसी और मार्ग पर मगर
यह याद रखना प्रिये…
जब हार थक कर रुक जाओ कभी किसी मार्ग में
जब तुम्हें आवश्यकता हो सहारे की ओर
जब तुम्हें सताने लगे कर्म तुम्हारे ही
जब एक दिन शीतल जल की
धारा कलकल करती
तुम्हें सुनायेगी मेरी पवित्रता की गाथा
उस दिन तुम मुझे याद करना प्रिये
मेरा प्रेम पवित्र था, है और रहेगा
सदैव तुम्हारे लिये।