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मिली साहा

Abstract

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मिली साहा

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हंसना भूल गया इंसान

हंसना भूल गया इंसान

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बदला बदला हर चेहरा बदली है हर नज़र,

जिंदगी पर हो रहा है आज ये कैसा असर,

जाने फिर कब वो दिन वो सावन आएगा,

जब प्यार के फूल खिलेंगे दिलों के अंदर।


प्यार दिखता नहीं कहीं हर जगह है नफ़रत, 

न जाने क्यों इंसानों की ऐसी हो गई फितरत,

बिखर रहा विश्वास अपनापन कहीं खो गया,

देखकर यह दशा मानव की हैरान है कुदरत।


ख्वाहिशों के पीछे अंधी दौड़ लगा रहा इंसान,

भूल रहा हर लम्हा अपना वज़ूद और पहचान,

दूर हो रहा जमीं से आसमान पाने की खातिर,

छुप रहा अंधेरे में खुशियों से हो रहा अनजान।


अपनों का ही अपनों पर ना रहा कोई विश्वास,

ऊंचा उड़ने की चाहत में भूल रहा है एहसास,

एक छोटी सी मुस्कान भी आज लगती महंगी,

ना खुशियों की धूप है ना चेहरों पर है उजास।


हंसना भूल गया इंसान किस भ्रम में घूम रहा,

मिट्टी का तन हमारा फिर भी गुमान कर रहा,

क्या रखा ग़म में खुशियां समेट‌ लो दामन में,

चार दिन की जिंदगी मुस्कुरा कर जी लो ज़रा।


जाने वो दिन कब आएगा हर चेहरा मुस्काएगा,

दिलों में होगी ना नफ़रत एहसासों को समझेगा,

बीतेगा पतझड़ का मौसम और सावन आएगा,

अपनों का टूटेगा ना विश्वास हर रिश्ता महकेगा।



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