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Rajeev Upadhyay

Abstract

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Rajeev Upadhyay

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यकीन

यकीन

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दूर-दूर तक

आदमी ऐसा कोई दिखता नहीं

कि कर लें यकीन

उस पर एक ही बार में।


यकीन मगर करना भी है

तुझ पर भी

और मुझ पर भी।

ऐसा नहीं

कि यूँ करके सिर्फ मुझसे ही है

हर आदमी ही इत्तेफाकन बारहा है।


हर आदमी यहाँ

कश्ती एक ही में सवार है

जाना है एक ही जगह

और एक ही मझधार है

बस रंग-पोत कर

कर डाला अपनी अलग पतवार है।


और उसको ये यकीन अब है हो चला

कि आदमी नहीं वो

वो तो आदमी का मददगार है।


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