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Rajeev Upadhyay

Abstract

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Rajeev Upadhyay

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उसके कई तलबगार हुए

उसके कई तलबगार हुए

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कभी हम सौदा-ए-बाज़ार हुए 

कभी हम आदमी बीमार हुए 

और जो रहा बाकी बचा-खुचा 

उसके कई तलबगार हुए॥ 


सितम भी यहाँ ढाए जाते हैं 

रहनुमाई की तरह पैर काबे में है 

और जिन्दगी कसाई की तरह॥


अजब कशमकश है दोनों जानिब मेरे 

एक आसमान की बुलंदी की तरफ 

तो दूसरा जमीन की गहराई है॥ 


इबादतगाह तक मैं जाता नहीं 

और खुदा कहीं मिलता नहीं 

थक गया हूँ भागते-भागते मैं 

कि घर तक रौशनी आई है॥


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