तुम्हारी मुहब्बत
तुम्हारी मुहब्बत
तुम्हारी मुहब्बत सजा दे रही है
वो जख्मों को मेरे हवा दे रही है,
छुपा कर रखी थी हिजाबों में मैंने,
वो चहरे से सबको बता दे रही है।
मुझे नींद वैसे तो आती नहीं है,
जो सो जाऊँ मुझको जगा दे रही है,
जहाँ से मुकम्मल नहीं लौट आना,
तू क्यों उन रास्तों का पता दे रही है।
बनाकर के पत्थर मैं दिल था छिपाये,
तू रख हाथ सबको दिखा दे रही है।।
मेरा चैन लेकर भी तू चुप नहीं है,
किसे क्या बताऊँ तू क्या दे रही है।
निभाई गई ना कभी जब मुसलसल,
तो राही को अब क्यूँ दुआ दे रही है।।