घर
घर
वो घर भी क्या घर था
जहाँ मैंने चलना सीखा।
वो घर भी क्या घर था
जहाँ मेरा बचपन बीता।
हर बात निराली थी उस घर की
हर फ़िजा नूरानी थी उस घर की।
हर दीवार मुझे पहचानती थी
हर कमरा मुझे पुकारता था।
माँ की हर आहट एक नई उमंग लाती थी
पापा की मुस्कान खुशी का एहसास कराती थी।
वो आगंन क्या छूटा सब जैसे रूठ गए
उन दीवारों से नाता क्या टूटा कमरे भी मुझे भूल गए।
माँ की आहट कहीं खो गई
पापा की मुस्कान फिकी पड़ गई।
वो घर भी क्या घर था
जहाँ सब कुछ चमकता था।
वो घर भी क्या घर था
जिसे याद कर चेहरा मेरा दमकता रहता।
