अपनी रसोई
अपनी रसोई
अपनी रसोई की है
कुछ अनुठी पहचान
मॉं के बताए मसालें
और लज्ज़तदार पकवान
अपनी रसोई की बात कुछ ऐसी
मॉं के हाथों की महक जैसी
तड़का प्यार का लगता वहां
सब प्यार से खातें जहां
नई सुबह की नए पकवान
रोज़ स्त्री सोचती रही
पहली व आखिरी मंजिल
स्त्री की रसोई ही रही
एक स्त्री ही स्त्री की
रसोई को पढ़ पाती है
उसकी कार्यकुशलता और हुनर
रसोई में दिख जाती है
एक स्त्री जब प्यार से
भोजन पकाती है
उसमें वह ममता और
समर्पण भी मिलाती है
अपनी रसोई में जब जादू
स्त्री के हाथों का चलता है
हर खाना हो जाता फीका
सिर्फ़ हाथों का स्वाद उभरता है
ये सबका स्वाद जानती है
राज गज़ब पहचानती है
नई-नई खुशबू आती है
सबके मन को बहका जाती है
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जहां भी देखों रसोई का
एक अलग संसार है
बनाती है जब माॅं वो खाना
उसमें बसता मां का प्यार है
माॅं के भोजन में तों
स्वाद बेहिसाब था
वो भोजन संसार में
सबसें लाजबाव था
माॅं की रसोई तों
हर समय ही खास थीं
उनकें हर खानें में
एक अजब सी मिठास थी
शहद सी मिठास भरी
अमचुर सी खटाई है
चटपटेंपन का जायका
तों रसोई में ही समाई है
स्त्री रसोई में जाकर
बहुत कुछ गुनगुना लेती है
लज्जतदार पकवान के साथ
अपनें अधुरें ख्वाब सजा लेती है
ना रहतें कभी कनस्तर खाली
विचारों से भरें कनस्तर में
कभी कविता भी पकती
हैं अपनी रसोई में
यूं ही ढ़ल जाती है उम्र
औरत की रसोई में
अपनी हर खुशियां वो
मिला देती है रसोई में।