इश्क़ के सिवा
इश्क़ के सिवा
इश्क़ के सिवा क्या कुछ और नहीं इस ज़माने में।
क्यों ज़िंदगी ख़त्म करते हो रूठने और मनाने में।।
खुद की ज़िन्दगी से तो निभाई नहीं जाती है वफ़ा।
खुद को फ़ना कर देते, बेवफ़ाई का ज़ख्म खाने में।।
किसी न किसी उद्देश्य से मिली है ये ज़िन्दगी हमें।
क्यों आँसू बहाते हो तुम यूँ व्यर्थ मरहम लगाने में।।
इश्क़ की धुंध में भटक कर गलत रहा ना पकड़ना।
वरना पूरी ज़िंदगी कैद हो जाओगे एक तहखाने में।।
जहांँ ना तुम्हारा वज़ूद होगा ना किरदार की महक।
खूबसूरत ज़िंदगी तुम्हारी ताउम्र कटेगी मयखाने में।।
इश्क़ के इज़्तिरार में मयस्सर ना होगी मुस्कान भी।
गर ये ज़िन्दगी बीतेगी इश्क़ की फरियाद सुनाने में।।
इश्क़ तो वही सच्चा जो आज़ादी देती कफस नहीं।
क्या रखा एक तरफा इश्क़ से खुद को बहलाने में।।
