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AMAN SINHA

Abstract

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AMAN SINHA

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अंध विश्वास

अंध विश्वास

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मैंने देखा है यहां लोग दो तरह के है

हाँ यहां पर हर किसी को रोग दो तरह के है

एक को लगता जैसे सब देवता के हाथ है

एक को लगता सबकुछ दानवो के साथ है


मन के विश्वाश को कोई आस्था बताता है

दूसरा भरम को अपने सत्य से छिपाता है

लोगों के आस्था का हो रहा व्यापार है

हर गली में पाखंडियों का लग रहा बाज़ार है


अन्धकार में है भटकता ज्ञान जिसको है नहीं

और कोई ज्ञान को ही सत्य मानता नहीं

नब्ज़ पकड़ी है सभी ने बेबस इंसान की

अपना घर भर रहे सब पैसो से हराम की


कोई खुद को देवी माँ का शिष्य है बता रहा

कोई खुद ही कृष्ण बनकर गीता है सुना रहा

कोई खेलता खोपड़ी से हड्डियां जला रहा

निम्बू और कपूर का कोई टोटका बता रहा


जटाएं फैला के कोई शिष्यता बढ़ा रहा

और कोई खुद ही के महिमा को गा रहा

अपनी बड़ाइयों पर इनको अभिमान है

खुद को समझते ये सब देवता सामान है


ये चरस है इस नशा का ना कोई इलाज़ है

जो किसी को लग गयी तो ना बुझे वो प्यास है

आँख मूंदे चल पड़ा जो तू किसी के बात पर

आँखें तेरी तब खुलेंगी जो पहुँचेगा तू घाट पर।


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