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Niti Sharma

Abstract

4  

Niti Sharma

Abstract

पता ही नहीं चला

पता ही नहीं चला

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समय चला, पर कैसे चला

पता ही नहीं चला

जिन्दगी कैसे गुजरती गई

पता ही नहीं चला

 

ज़िन्दगी की आपाधापी में,

कब निकली उम्र हमारी,

पता ही नहीं चला।

 

कंधे पर चढ़ने वाले बच्चे,

कब कंधे तक आ गए,

पता ही नहीं चला ।

 

एक कमरे से शुरू हुआ सफर,

कब बंगले तक आ गया,

पता ही नहीं चला ।

 

हरे भरे पेड़ों से भरे हुए जंगल थे तब,

कब हुए कंक्रीट के, पता ही नहीं चला ।

 

कभी थे जिम्मेदारी माँ बाप की हम,

कब बच्चों के लिए हुए जिम्मेदार हम,

पता ही नहीं चला ।

  

दर दर भटके हैं,

नौकरी की खातिर खुद,

कब करने लगे लोग नौकरी हमारे यहाँ,

पता ही नहीं चला ।

 

बच्चों के लिए कमाने, बचाने में

इतने मशगूल हुए हम,

कब बच्चे हमसे हुए दूर,

पता ही नहीं चला ।

 

भरे पूरे परिवार से

सीना चौड़ा रखते थे हम,

कब परिवार हम दो पर सिमटा,

पता ही नहीं चला।


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