मौत का दुख
मौत का दुख
मौत हूं मैं, इस ब्रह्मांड में मुझसे कोई जीत नहीं सकता,
राजा हो या रंक, मेरे आगे कभी कोई टिक नहीं सकता,
हर कोई मुझसे डरकर, अपने रास्ते से हटाना चाहता है,
ऐड़ी से चोटी का पूरा जोर लगा कर, लौटाना चाहता है,
एक बार जो मैं आ गई, फिर कदापि वापस जाती नहीं,
जिसकी जितनी सांसे है, उससे अधिक मिल पाती नहीं,
कर्म है यह मेरा, इसलिए मुझे यह फर्ज़ निभाना पड़ता है
कितनी भी जरूरत हो इंसान की, मुझे ले जाना पड़ता है,
तुम यह कभी मत समझना कि मैं निष्ठुर और निर्दयी हूं,
मैं भी ना जाने कितनी बार, फूट-फूट कर अकेले रोई हूं,
नन्हे मासूमों को अपने साथ ले जाने में, मैं कांप जाती हूं,
जब भी अपनी गोद में, मैं उन्हें अंतिम बार उठाती हूं,
जब सीमा पर खड़े वीरों को, लाने का आदेश होता है,
भगवान का आदेश ना मानुं, ऐसा मन में उद्वेग होता है,
अच्छे इंसानों को क्यों बुलाया, मन में मेरे प्रश्न होता है,
किंतु प्रभु के आदेश का पालन, मेरा कर्तव्य होता है,
जानती हूं भगवान है, उनके आगे सर मैं कैसे उठा पाऊं,
महिमा उनकी अपरम्पार है, शायद मैं ही ना समझ पाऊं,
मैं तो चाहती हूं, बलात्कारियों और हत्यारों को ले जाऊं,
देशद्रोही, गद्दारों को, नर्क के अंदर तक छोड़कर आऊं,
किंतु जब इन ज़ालिमों को ले जाने में, मैं असफल रहती हूं,
उस वक़्त अपनी स्वयं की नज़रों में, मैं स्वयं ही गिरती हूं,
मज़बूर हूं बिना आदेश के, मैं कुछ भी नहीं कर सकती
वरना चुन चुन कर ज़ालिमों, के जीवन का अंत मैं करती।
