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Manpreet Kaur

Abstract

4  

Manpreet Kaur

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पिछले साल वाला आईना

पिछले साल वाला आईना

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आईना बदल गया था अब 

जो पिछले साल पहचान बताने लगा था।

मेरे ज़ख़्म देखने लगा था मज़ाक उड़ाने लगा था।

अब गर्दन से उठकर चेहरे को ढकना पढ़ता था

इल्म तो रूह को हो ही चुका था।

उस आईने में रोज़ ख़ुद को देख घिन्न आने लगी

पर वो वहीं थास्थिर, निडर और कुछ इशारा देता था।

"औरत हो! तलाक के बाद बेसहारा हो जाएगी,

कमाओगी क्या कहां से खाओगी।"

बढ़ा ग़ुरूर था उसकी आवाज़ में

ऐसे जैसे ढाल देगा मुझको अपने अहंकार में

वो आईना वहीं था मेरे इंतज़ार में।

नाखुश थी अंदर से बाहर से बत्तीसी फूटती थी मुस्कुरा के

झूठ ही देखती थी

दिखती भी झूठ थी हर बार मैं।

आईना मुझे बदलने में कामयाब हो रहा था

हौंसला देने के मौके डटोल रहा था।

ना समाज का ना मां बाप का सोचा

इस बार बस ख़ुद का सोचा

बात चोट की थीशरीर पर हर बार लगती थी

बात आत्मसम्मान की थी

जिसके कारण मैं हर रात जगती थी।

इस बार ना सोचा किसी और का

बस्ते में कुछ कपड़े भरे, चंद किताबें,

ढेर सारा हौंसला और हिम्मत।

निकल गई उस नर्क से जहां आईने ने बताई मेरी कीमत।

अब लिखती हूं, ख़ूब कमाती हूं पैसे तो इतने नहीं पर शुद्ध इज़्ज़त

और हर रात शांती की सुकून की।

नया घर है नई हूं मैंपर शायद आईना कुछ वैसा सा ही है।

जिस्मे ख़ुद को देखकर ताकत महसूस करती हूं।

और बदले में वो बदला हुआ आईना

अब आंसुओं की जगह मुस्कान दिखाता है।



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