एक भारत मे दो गंगा
एक भारत मे दो गंगा
एक भारत मे दो गंगा बोलो कैसे बह सकती है
दोनो ही का कार्य एक हो, ये प्रतिस्पर्धा बोलो कैसे हो सकती है
एक है जीवन दायिनी माता सब कुछ पावन कर जाए
एक मे जितने पाखंडी हो, डुबकी लगाकर वो तर जाए
पहली बहती उत्तर से पूरब सागर में मिल जाती है
दुसरी पांव पसारे हर क्षण सिंधू लांघने जाती है
जिसने जितने पाप किये है प्रायश्चित यहां पर करते है
तन मन अपना धोकर सारे नया रूप सा धरती है
एक है बहती धाराओं में अपने देश को निर्मल कर जाए
दुसरी है बढ़ती विचारों में हर स्थान पर बस कमल खिलाएं
एक बसे है स्थान में अपने ना तेरी करे अगुवाई
एक तेरे अस्तित्व को देखो हर दिन हर क्षण करे दुहाई
कलयुग की गंगा में देखो कोई चिर पापी न कहलाए
जिसने मारी इसमे डुबकी अगले पल सब कलंक धुल जाए
आगे चलकर इसका उद्गम एक विचार से निकलेगा
जो भी इसके संग चलेगा वो ही इसका हो लेगा
लेकिन ये एक मानसिकता है, असर जरा देर में दिखता है
जैसे कोई बदलाव है कोई जब हो जाता है तब दिखता है
सदियों से बहती आई उसने भी गुहार लगायी
इसके कारण मेरी गुणवत्ता पर कईयों ने अवाज़ उठाई
धीरे-धीरे एक दिन होगा ये सारा जग बदल देगा
जो ना इसका संगी होगा मुक्ति पाने को तरसेगा
लेकिन जो भी संग चलेगा कही बात दोहराएगा
उसके खातीर गंगा जल भी कोइ काम ना आएगा।