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Divya Jain

Abstract

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Divya Jain

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पापा की परी

पापा की परी

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“पापा की परी हूँ मैं” मेरी सखियाँ कहती थीं,

क्या मैं हूँ? मैं इस सोच में रहती थी,

माँ से पूछा करती, तो वो कहती “ तू तो सबकी लाडली है”,

पर उसके ये कहने से, थोड़ी ना मन की जगह भर्ती थी,

सोती हुई रातों मे अक्सर जाग कर ये ही सोचा करती थी !


एक दिन माँ ने बतलाया

पिता अपने बच्चों से जितना प्यार करता है वो जताता नहीं,

मैंने बोला पर इससे दिल का वहम तो जाता नहीं !


फिर एक दिन आया जब पिता ने अपना प्यार दिखाया,

जाना था मुझे उनसे थोड़ी सी दूर,

ना जाने उनकी आँखो से वो आँसु कैसे पलकों तक आया,

उन्होंने मुझे ज़ोर से गले लगाया,

बोलना चाहते थे बहुत कुछ पर लफ़्ज़ों ने साथ ना निभाया,

वो आँसु बहुत कुछ कह गए,

मेरे सभी सवाल वही रह गये,

अब इस कश्मकश में नहीं हूँ मैं,

सबको कहती फिरती हूँ, “हाँ ! पापा की परी हू मैं “ !



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