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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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नितांत अकेले में, मैं

नितांत अकेले में, मैं

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नितांत अकेले में मैं

अपने छोटे से कमरे में

तुम्हे अपने पास पा

आंखे बंद कर

घूम आता हूँ दूर दूर तक

तुम्हारा पूरा देश।

दर्शन पा जाता हूँ

तुम्हारा भी और 

तुम्हारे निजाम का भी

टहलते हुये सामाजिक परिवेश में

रूबरू होते हुये

चलती हुयी

बौद्धिक बहसों से।

अब तुम्हारी

आंतरिक सुरक्षा का दर्शन

और उनका ब्यवहार देख

बन्द आंखे खुल जाती हैं

मचलने लगता मन

तुमसे मिलने को।

तुम्हारी आंतरिक सुरक्षा के

आधुनिक प्रबन्धों के

बीच खतरों को पलते

पुष्पित होते देख

भा जाते हो तुम मुझे

तुम्हारे प्रयासों को

नेस्ताबूत करने की

तुम्हारे ही पास चलती हुई

अनगिन कोशिशों को

देख देख मैं हतप्रभ हो जाता हूँ

तुम्हें तो निर्णायक होना चाहिये

और तुम बहसों में,तर्को में

उलझे उलझे रहते हो

वो भी तब जब

बहसों से मुक्ति के रास्ते

तुम्हारे अपने सर्वमान्य निजाम में है

तुम्हें तो बस उन्हें

एक्टिवेट भर करना है

औऱ मैं आश्वस्त हूँ कि

तुम ऐसा कर सकते हो।


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