मसीहा कोई बिरला ही होता है
मसीहा कोई बिरला ही होता है
प्रिय डायरी,
आज जहां हम अपने घरों में बैठकर हर दूसरी चीज़ को, हर दूसरे गुज़रते पल को कोस रहे हैं वहीं कुछ कर्मवीर अपने आप को जोख़िम में डाल हमारे लिए दिन रात एक कर रहे हैं। आज उन्हीं के नाम -
अपना – अपना दुःख सबको
शतफनधारी बन –
डस जाता है ।
अपने दुःख टाल दें
कल के लिए
ज़ख़्मी उगलियां लिख जाएं
हर एक पल - जग के लिए ;
ऐसा तो बस
सपने में होता है ।
तन नहीं –
घाव मन की गहराइयों को छीलें ;
जन – गण का असिधारा चक्र –
स्वेच्छा से धारण करें ;
सूलीगढें , धरें और फिर चढें –
“ मसीहा “
कोई बिरला ही होता है ।
