चांद और ज़िंदगी
चांद और ज़िंदगी
बांट लिया है धरती को
चांद और सूरज ने
रात और दिन में
सूरज घुल जाता है क्षितिज पर
आसमान पर चांद टंकता है
दूध का
आधा या पूरा भरा कटोरा लगता है।
भूखे, अधनंगे बच्चे
मुंह बाए ताकते हैं चांद को
कि चलते - चलते छलका जाएगा
दूध की कुछ बूंदें
आसमान की खुली छत पर टंगे तारे
गिनते - गिनते
थक कर सो जाते हैं
फुटपाथ की नंगी ज़मीन पर
हवाओं में घुली सिहरन से बेसुध।
उतरता यदि चांद कभी धरती पर
देखता
चांदनी में उभरती परछाइयां
ढलती रात के साथ डरावनी होती जाती हैं
देखता
अपनी ही परछाई से डरा हुआ आदमी
चांदनी की नहीं
अंधेरे की दुआ करता है
परछाइयों से छुटकारे की दुआ करता है।
उतरती रात
आशा की फूटती किरणों के पीछे - पीछे
फिर उभरता है सूरज
उढ़ाने को रेशमी नर्म चादर
भोर की सिहरन से नींद में कुनमुनाते
फुटपाथ पर सोए बच्चों पर
चढ़ती धूप के साथ
सूरज की उंगली थामे चलती है
ज़िंदगी
एक और रात
चांद की झोली में डाल जाती है
ज़िंदगी।