दहलीज़
दहलीज़
कभी लड़खड़ाते
तो कभी सधे हुए क़दमों से
ज़िंदगी चलती रही, चुकती रही
धीरे - धीरे।
सोचता हूं साठे की दहलीज़ पर
कुछ ठहर जाऊं
मुड़ कर देखूं
शायद कोई बीता हुआ पल आवाज़ दे।
किंतु ऐसा नहीं होता
मेरे साथ साथ
मेरे क़दमों के,
मेरी यादों के निशान भी मुड़ गए हैं
उल्टे पड़ गए हैं।
ज़िंदगी की जद्दोजहद ने गढ़े
कुछ ठोस, गहरे निशान
ज़िम्मेदारियों के बोझ तले झुके कंधों की
परछाइयों के निशान
और कुछ निशान
चूड़ी की खनक, पायल की छनक और
हवाओं में तैरते
खट्टे - मीठे पलों के
तो कुछ
उन्मुक्त यौवन के
जीवन के प्रति आस्था के अदम्य विश्वास के भी।
दूर कहीं बैठा मेरा बचपन
ललचाता मुझको
पीछे को चलने को।
मैंने भी ठाना है
निशानों के चावल पीछे फेंक
दहलीज पार कर जाना है
बचपन का हाथ थाम
आगे ही को बढ़ते जाना है।