नदी की व्यथा
नदी की व्यथा
नदी चीखती है
जब
कोई हिमखंड नहीं पिघलता
बादल
अनदेखा कर अपनी राह बदल लेता है
हिलोरें नहीं उठाती
हवा
चीर जाती है क्रमश: क्षीण होती काया
अपने ही अश्रुओं का भार ढोती
नदी
नि: शब्द हूक भरती है
नदी चीखती है
अर्घ्य देने को
कमर तक पानी में उतरे शरीर से
जब
छू जाती है
कोई अधजली लकड़ी
टकराती है कोई अधजली, अधगली देह
और लिपट जाती हैं
फूल मालाएं
जब
अंजुरी भरते हाथों में
ठहरता है
मटमैला पानी
या कोई गलता हुआ फूल
नदी का हिय
बींध जाते हैं कई कई शूल
नदी चीख पड़ती है
जब
मछुआरे के बच्चे भूखे ही सो जाते हैं
जब
दे नहीं पाती वह
ध्यानरत बगुले को एक मछली
जीवित या मृत
जब
केवल पैर पखार पाती है
गागर ना भर पाती
जब भी
देखती है नंगे अधनंगे बच्चों को
दोनों पाटों पर
लोटते कीचड़ में
एक अदद सिक्के को पाने की आशा में
जब भी
झांकती है तृषार्त, सूनी आंखों में
नदी बिलखती है
झटकती है
अपना जीर्ण आंचल किसी पत्थर पर
कि छिटकी हुई बूंदें
दे आएं
अंबर को तृषित मनों की पाती
चीखती नदी
मौन
प्रार्थना में लीन हो जाती है ।