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Kiran Saraogi

Abstract

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Kiran Saraogi

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अकवार

अकवार

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मेरे मन की अगणित पीड़ा का एक जलसा होने वाला है

युद्ध हृदय,और मन का जीवन तल में होने वाला है

लाख भुजाओं की अर्णी की  भीषण विप्लव होने वाला है

कर्कश स्वर झंकृत होकर केशजिनी कलेश भी होने वाला है

यहां विशाखा का स्वागत की बेला का रंग केसर होने वालाहै।

ये तुंग श्रृंग के शिखर कनक पर लौह धरा का बैठने वाला है

ये युगमिं जंजर जिष्मों के आग सिरहाने बोने वाला है

काशिल है, जिवहा की दस्तक दांतों की चौखट पर घूंट भरने वाला है

ये कुंज , कंटक सी उपजी तरुनाई अरण्य की चुभन लिए

समर समोहदित पुलकित होने वाला है

है मौन समिक्छा स्निग्ध हुए कोपल ,कपाल की धार्णी उद्धृत

होने वाला है।

कर्मठ बागी सुर नग की वीणा को अल्हादित करने वाला है।

चिरनिद्रा की आस लिए सांसों के पैमानों में कोई तो डुबाने वाला है।

कैसे हो हकदार मुसाफिर इन पग के रज कन के तुम इन राखों की ,

ढेरी पर कोई तो बैठने वाला है।

ये करवट शैया पर लेटी विदुषी की हो सकती हैं फन के पहलू में कोई तो डसने वाला है।



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