फागण
फागण
मैं घणी बावली हो गई
तेरे काँधे ऊपर सो गई
आख्या में निंदिया न थी
पण घणी सुकुणा जी थी
मेरे पोर पोर थिरका थी
हिय लाल गुलाल उड़ा थी
तेरा नशे मा डुब्बी जाऊ
हिचकोले भर भर खाउ
दिल डोर थमा दी तन्ना
मेरी पतंग उड़ा दे चन्ना
इब फागुण की बारी सा
मेरा गाल गुलाल लगा जा
ले के कान्हा सी पिचकारी
राधा न आज भिजा जा
विन्दावन सी हो नगरी
मैं भर ले आउ गगरी
ये पलाश ,फ़ूलन की होरी
दमके ज्यों सूरज की जोरी
जब धरि अधर बजावै बंसी
परवश ज्यो तन मन सौतन सी
हिरदय पाश तुम बांध उ मोही
अंग झरत रंग उर सम होहहि।
