बस युहीं लिखती जाती हूँ
बस युहीं लिखती जाती हूँ
बस युहीं लिखती जाती हूँ .....|
लेकर कागज और कलम बस बैठ जाती हूँ ,
नित नए -नए सपने बुनती हूँ
और जिंदगी के कोरे कागज पर उकेरती हूँ ,
बस युहीं लिखती जाती हूँ ......।
कब सुबह से शाम हुई भूल जाती हूँ
कभी कल्पना ,तो कभी हकीकत ,
तो कभी जीने का नया अंदाज उभारती हूँ
संग शब्दों के जीवन के हर पहलु पर प्रकाश डालती हूँ ,
होली ,दीवाली हर त्यौहार का महत्व बताती
बस युहीं .....।
नन्हें बच्चें की किलकारी से लेकर
अश्रुपूरित नैनों से भीयही अपना नाता निभाती हूँ
आजकल समाज को समाज का ही आइना मैं दर्शाती हूँ
बस युहीं आइना दिखती जाती हूँ ...।
आँखों के सामने होते अन्याय को देख नहीं पाती हूँ
समाज में फ़ैली दुराचारी को देख दंग रह जाती हूँ
गांधीजी को साक्षी मान विरोध का यही तरीका आज अपनाती हूँ
बस युहीं ...।
कल्पना को हकीकत बना नहीं पाती हूँ
तो क्या हकीकत को ही कल्पना का अमलीजामा पहना मैं अपना काम कर जाती हूँ
पुरस्कार या किसी अविष्कार की अभिलाषी नहीं
बस एक समाज के प्रति जिम्मेदारी समझ में भी साझेदार बनना चाहती हूँ
मैं बस युहीं लिखती जाती हूँ . ......।