घर,सुकून का एहसास
घर,सुकून का एहसास
हर एक ईंट की नींव खून-पसीने की मेहनत हो
अपने बच्चे को बढ़ते देख जो आनंद
वैसी ही अनुभूति जिसे बनते देखो हो, वो घर
जहाँ की दरो-दीवारें भी अपनी सी लगे
जिसे हाथों से अपने सजाने का हर अहसास ही अलग हो
एक-एक जर्रे में हो अपनापन,
जहाँ पत्थर की मूरत नहीं इंसान की इंसानियत बसती हो
वही तो है घर ...
माँ की ममता पिता का प्यार
दादी का दुलार, नानी की अनगिनत कहानियाँ
भाई-बहनों से बेसर पैर की रोज की बहस
रूठना-मनाना और फिर से एक हो जाना
बचपन के बिताएं बेबाकी पल
बच्चों के जन्म, नामकरण, शादी,
अपनों की सालगिरह, वर्षगाँठ
न जाने कितने अवसर बेशुमार
जिसकी गोद में हो समाये हैं
यही प्यारा सा घर ..
रिश्तों की खट्टी-मीठी तकरार
और तकरार में बसा प्यार-विश्वास की
सौगात हो सदा ही साथ
ईंट-पत्थरों से बना किराये का मकान हो
चाहे रईसी इमारतों का ठाट- बाट
परायापन हर पल प्रतीत होता
वो कहाँ घर कहलाता?
दुनिया घूम आने पर भी
जहाँ आकर चैनो-सुकून मिलता
वही तो घर कहलाता..
कभी महसूस होता
जैसे कहीं सीमेंट में मिलावट होती
ऐसी ही तो रिश्तों में भी झूठ, बेईमानी
और धोखे की मिलावट होती
फिर भी यही विश्वास
एक दिन बनेगा सबका ही एक प्यारा सा घर
अपना सा न्यारा हर एक घर
ईर्ष्या, जलन, द्वेष, विकार भेदभाव हो
या निर्दोष को अन्याय
सब होंगे समाप्त और बनेगा
प्यारा-सा एक आशियाँ
वही घर ......