करती क्या हो तुम ?
करती क्या हो तुम ?
पौ फटने से दिन ढले बस अनवरत लगी रहती
गरमा- गरम नाश्ता हो या खाना
हर किसी की पसंद - नापसंद सर आँखों पर रखती
बस खुद के लिए ही कुछ न कर पाती पर फिर भी करती क्या हो तुम ?
सास की दवाई हो ससुर की बीमारी हो
या बच्चो की पढाई हो मेहमाननवाजी हो
या घर की साफ़ -सफाई हो
सब बस मेरी जिम्मेदारी फिर भी यही सबका यही तकियाकलाम
करती क्या हो तुम ?....
बच्चो के संग ऑफिस भी घर ही से संभालती
बीमार भी रहूँ तो कभी अपना सोच न पाऊँ
गलती से ही अगर फुरसत के भी कुछ पल पाऊँ
तो सब यही कहते करती ही क्या हो तुम ???
अपना वजूद भूलकर सबको मैं अपनाती
खुद को नकार सबको गले लगाती
तुम सब चैन से रहते क्युकी सारी जिम्मेदारी मैं ही ओढ़ लेती हूँ
खुद को होम कर सबका जीवन सवारती
सपनों को अपने परिवार में ही जीती हूँ
तुम्हें अपना साथ देकर खुद को धन्य मैं समझती हूँ
फिर भी यही राग अलापते "दिनभर करती ही क्या हो तुम ?