मौन की बंदिश
मौन की बंदिश
रह लेता हूँ मैं भी अकेला,
जैसे रहती हो तुम भी खोई,
ये बेपरवाही या और ही कुछ है,
तुम तो अब नादाँ नहीं !
ये सुर्ख रंग से चमकता चेहरा,
धड़कन में जोर लगाता है,
आँखे है तेरी बड़ी ही क़ातिल,
इनमें जो जाम छलकता है।
है क्या तरकीब की तुमने भी,
इनको काबू में रखा है,
रुत है तो वैसे और ही कुछ,
पर तेरे सब्र की हद नहीं है।
ये ज्वार जो मेरे अंदर है ,
यह तेरी भी अभिलाषा है,
पर तुम तो ऐसे ग़ुम-सुम हो,
जैसे ये कोई भाटा है।
रात चांदनी बीत रही,
कब से क्षितिज को घूर रही हो,
जुल्फ के काले लटों में मैं भी,
कब से यूँ ही भटक रहा हूँ।
अब बोलो कुछ तो होटों से,
जरा मौन की बंदिश को तोड़ो,
मेरे कानों के पर्दों को,
मीठी झंकार से तुम भी
जोड़ो।
आँखों से तनिक ताल मिलाओ,
ऐसे ना तुम नज़र हटाओ,
मेरी आँखों के पैमाने भी,
इन बेशक़ीमती जाम को लूटें।
सांसों की सरगम से अब,
इस तो समां को बस गुलज़ार करो,
सांसों की सरगम से अब,
इस तो समां को बस गुलज़ार करो।
इस रेत की चादर के तल पर,
दोनों मिल के एक हो जाएँ,
गिरें सारी चार दीवारी बंदिश के,
आभूषण फेंक दो तुम।
पावन चरणों से पल भर तो,
सागर का जरा स्पर्श करो,
पायल की छनक से रुग्ण ह्रदय की,
अंतरतम तक मौन जड़ो।
जरा स्वांस मिले तेरा-मेरा,
वींणा की सी झंकार उठे,
अंग-अंग से यौवन रस के,
जाम का हम अब पान करें।
यह योग विहंगम संगम का,
जीवन सरिता-सा लगता है,
इस बार तो बस अब कदम धरो,
संगम तट में डूब तरो।