लड़की
लड़की
लड़की बदलती है
लड़की जन्म लेती है
एक ‘आंसू’ जैसी
फिर धीरे से वह
‘मनीप्लांट’ हो जाती है .
घर से बाहर निकली तो
‘सड़क’ हो गयी
कभी ‘स्कर्ट’ कभी ‘सलवार’
तो कभी ‘बुरका’ बन जाती है .
लड़की कभी ‘फिकरे’ कभी ‘फटकार’
तो कभी ‘आरोप’ हो जाती है .
घर में लड़की
‘झाडू’ ‘बर्तन’ ‘चूल्हा’
तो कभी ‘होमवर्क’
कभी भाई की ‘जिद’
और बाप के कंधो पे लदा
‘बोझ’ हुई
फिर लड़की
किसी प्रदर्शनी में लिपी पुती
‘गुडिया’ सी नुमाइश करती है
फिर वह ‘टीवी’ ‘फ्रिज’ स्कूटर’
हो जाती है .
फिर ‘अपने घर’ जाकर
कभी वह ‘चारपाई’ कभी ‘दीवारघड़ी’
तो कभी ससुर की ‘ऐनक’
सास की ‘लाठी’
ननद का ‘नेकलेस’
देवर का ‘नाश्ता’
फिर वह अपने ही घर की
प्रताड़ना- अवहेलना
बन जाती है .
इसके बाद वह दो बच्चों में बदल जाती है
कभी आधी रात की ‘किलकारी’
कभी ‘दूध की बोतल’
कभी ‘खिलौना’ तो कभी ‘झूला’ बन
हिलती रहती है
कभी ‘पैरों की जूती’ हुई
और अंत में कभी ‘तीर्थ’
कभी ‘गंवार’ कभी ‘कोठरी’
फिर ‘चन्दन की लकड़ी’
‘चिता’ बन जाती है .
हाँ !
लड़की बदलती है
और बदलती रहती है..