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एक बूँद

एक बूँद

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मैं एक बूँद और ये मेरा सफर,

सफर शून्य से बनकर शून्य में,

मिल जाने का,

सफर अपने वजूद को खोजने,

या बे-वजूद हो जाने का।


क्या है ये सफर, है इस का सबब क्या,

क्यों मुझे बादलों की गोद में पलना था,

क्यों मुझे बारिश की बूँद बनकर झरना था,

अभी तो पलभर ठहर ने भी नहीं मिला था,

बर्ग की बाँहों में,

के फिर मुझे बाँहों से फिसलना था।


मिलना था मुझे भी शायद किसी दरिया में,

के अनंत रूप में मुझे ढलना था,

बर्ग से बिछड़ मैं बूँद,

गिर पड़ी मिट्टी की चादर पे,

सोख जिससे मुझ ने मुझ को खो दिया,

अब मैं एक सुगंध बन चुकी थी।


शायद ये था मेरे सफर का अंत,

मुझे किसी ज़ेहन में एक महक,

एक याद बनना था,

बेवजूद होना ही मेरा वजूद था,

सफर शून्य से बनकर शून्य में,

मिल जाना था,

मैं एक बूँद और ये मेरा सफर...!


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