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अंतर्द्वंद्व

अंतर्द्वंद्व

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ओ जलधि, हे जलधर,

अपनी "तनहाई" साथ लिए,

तट पर बैठी, निहारती तुम्हे,

क्यों अपने से लग रहे हो।


अरे,

तुम भी तो निरंतर अकेले बह रहे हो,

अनुपम हो तुम,

अपने अंतस में अनंत थाह धरे,

समेटे बैठे हो, अनगिनत ज्वार,

उद्दाम लहरें उठती हैं,

अंतस्थल से तुम्हारे,

इस तट से उस तट तक,

दौड़ लगाती हैं,

भिगो कर उनको लौटती हैं,

फिर तुम में समा जाती हैं।


हे, समन्दर,

मेरे अंतस में भी,

उद्दाम लहरें शोर मचा रही हैं,

मेरे मन-तट को भिगोती जा रही हैं,

बहने को आतुर है ये,

नैनों के रस्ते,

क्या समर्पित कर दूँ तुम्हे,

ये भी तो खारी ही हैं ना,

तुम्हारे जल की ही तरह।


ओह, अथाह सागर,

अब समझी, तुम्हे देख कर,

तुम्हारी ये लहरें जो खारी हैं,

लवणयुक्त है, तो शोर मचा रही हैं,

अपना अनमोल तो तुमने,

छुपा रखा है, अनंत गहराई में,

पाना है वो, तो तुम्हारे अन्दर झाँकना होगा,

और जल में तुम्हारे, डूबना भी होगा।


सच है, ओ रत्नाकर,

मेरे मन की उद्दाम लहरे भी,

लवणयुक्त यादों से भरी हैं,

वही, जो कड़वी और उथली हैं,

मेरे अंतस की गहराई में बसी हैं,

मोती सी उजली-अनमोल,

मूंगे-सी निराली, सुहानी यादें,

अकूत रत्न भण्डार-सी,

उतरना ही होगा,

अंतस्थल में अपने,

डूबना होगा अपने मन में,

वहीं मिलेगा मुझे,

अपना सर्वश्रेष्ठ,

जो अब तक मैंने पाया नहीं।


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