राखी
राखी
भैया दूर हैं..
मैंने राखी भिजवाई है।
संग राखी के कुछ यादें भिजवाई है ।
इन धागों का रेशा...
है उस पतंग की डोर जैसा,
जो मैं पकड़ती थी..
जब भैया पतंग उड़ाना सीख रहे थे।
भैया मांझा संभालते ,
और मैं उछालती थी।
कि दूर तक जाए मेरे भैया की पतंग,
आसमान में ऊंची रहे सबसे,
उड़े बादलों के संग।
मैं भैया के साथ क्रिकेट खेलती, और भैया मेरे साथ कित कित।
कभी तो बड़ा मजा आता पर कभी हो जाती खिटपिट।
भैया ने मेरी गुड़िया की आंख निकाल दी थी…
मेरी गुड़िया कानी हो गई मैं कितना चिल्लाई थी ।
भैया मेरी गुड़िया की शादी में बाराती बन
सारा खाना खा जाते थे ।
कभी कभी तो मेरी गैरमौजूदगी में गुड़िया को फांसी पर लटकाते थे।
पर फिर भी हमारा अटूट नाता था।
जब भैया हॉस्टल गए ,
ये तब समझ आया था।
भैया के जाने से घर सूना हो जाता था।
गुड़िया कोने में पड़ी थी,
मुझे बहुत रोना आया था।
फिर भैया छुट्टियों में घर आते थे,
हॉस्टल के खाने का स्वाद मुंह बना कर बताते थे।
मैं भैया की कमीज धो देती,
तो “अरे ये तो नई बन गई” कहकर
पीठ थपथपाते थे ।
अब वो दिन बीत गए हैं…
भैया अपनी जिम्मेदारियों में डूब गए हैं।
हमारे बीच मीलों की दूरी है
कुछ उनकी कुछ मेरी भी मजबूरी है।
पर राखी का ये धागा हमें सदा साथ
बांधे रखेगा।
इतना तो विश्वास है मुझे जब हममें से एक तकलीफ में होगा
तो दूजे को अपने साथ पाएगा...।