मैं औरत हूं
मैं औरत हूं
होंठों को दबा लेती हूँ
जब कोई कुछ भी कहता है
पलटकर जवाब भी नहीं दे पाती
दिलो-दिमाग में शब्द गूंजता रहता है
क्योंकि मैं औरत हूं
चाहे कोई कुछ भी कह दे
सब चुपके से सुन लेना है
कोई सपोर्ट नहीं सपनों को
सपनों में बुन लेना है
क्योंकि मैं औरत हूं
आजादी से तो सांसे भी नहीं ले सकती
इशारा क्या होगा बस उम्मीदें तकती
कभी-कभी तो खुशियां खो जाती है
उम्मीदें भी अक्सर निराश हो जाती है
क्योंकि मैं औरत हूं
समाज के तो क्या कहने
घर में ही दबाया जाता है
चाहे हो कुसूर किसी का
फिर भी सुनाया जाता है
क्योंकि मैं औरत हूं
इस अंबर को तकती हूं तो जल
उड़ जाने को जी चाहता है
पंख नहीं है पागल
फिर मुझको याद आता है
क्योंकि मैं औरत हूं
चाहे कितनी शिक्षित दुनिया हो
चाहे कितना सभ्य समाज हो
यह बेड़ियां यूं ही है
चाहे मन कितना नाराज हो
क्योंकि मैं औरत हूं
दौड़ते हुए को देख मन करता है दौड़ने को
उड़ते हुए को देख मन करता है उड़ने को
इस बेतुके समाज के सामने नहीं दिल करता झुकने को
करती हूं मरहम तलाश जब पीर मुझे होती है
क्योंकि मैं औरत हूं
यह दुनिया चलती है
जब मैं जननी बनती हूं
मैं मृत्यु ग्रास होती हूं
फिर भी जीवन जनती हूं
क्योंकि मैं औरत हूं
फिर भी ना जाने क्यों
मुझको ही दबाया जाता है
प्राणहीन समझकर
क्यों मुझे सताया जाता है
क्योंकि मैं औरत हूं।