ये शहर इतना झूठा क्यों है ?
ये शहर इतना झूठा क्यों है ?
अपने हाथों से बसाया था
तेरा हर आशियाना हमने,
बरखा धूप में हंसकर भी
इमारतों को सजाया हमने।
घर में चूल्हा ना जला पर
तेरा निवाला बनाया हमने,
घर की चौखट मटमैली थी
तेरे आंगन को सजाया हमने।
खुद के घर में था अंधियारा
ये शहर जगमगाया हमने,
कच्ची सड़कों पर हम जी रहे
शीशे सी सड़कें बनाई हमने।
इस दौर में भी हम जी लेंगे
यों पलायन हम नहीं करेंगे,
गुज़ारिश है कुछ राशन की
मेरे बच्चे भूख से नहीं मरेंगे।
जीविका तो अब छीन ही गई
मुझे इस घर में तो रहने दो,
डरता हूं मैं अब ऐसे मरने से
मेरी मिट्टी में मुझे दफन होने दो।
बच्चों को कंधे पर लादे
पैदल मिलों यूं चल रहे,
आंखों में नीर भी कह रहा
ये शहर इतना झूठा क्यों है ?