shraddha shrivastava

Abstract Drama Tragedy

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shraddha shrivastava

Abstract Drama Tragedy

कितना कुछ पकाया उसने आंच में

कितना कुछ पकाया उसने आंच में

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कितना कुछ पकाया उसने आंच में

अपने अरमानों की पोटली तक चढ़ दी उस आंच में

कितना कुछ पकाया उसने आंच में।


सोलह साल की थी तब हज़ार सपने पालती थी

शादी के बाद ज़िम्मेदारी उठाई तो ऐसे उठाई

कि फिर और कुछ ना उठा पाई।


पैरों में घुंघरू बाँध के वो नाचती थी,

खुली छत पे वो तेज़ आवाज़ में

सुर-ताल के साथ गाना गाती थी


शौक थे उसके कई उसमें

दिन-रात खुद को खोजती थी,

क़भी गुम हो भी गई तो

फिर से खुद को खोजती थी।


कितना कुछ पकाया उसने आंच में

अभी भी चढ़ के ही आयी है खोल रहे हैं

तेज़ आंच पे कुछ सपने,

उतार के धीरे से किनारे रख लेगी

किसी ने देखा तो हँस कर बात बदल देगी।


कितना कुछ पकाया उसने आंच में

ऐसी कई स्त्री है जो बाँध गई एक ऐसी डोर में

जहाँ भरा पूरा परिवार तो है मग़र

खुद कहाँ खड़ी है इसी खोज में बस जल रही है

और यही सोच रही है कि

कितना कुछ पकाया मैंने इस आंच में।


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