मेरा महबूब है कैसा
मेरा महबूब है कैसा
बरसते मेघ से मैंने पूछा
मेरा महबूब है कैसा,
कुछ पल सोचा और
फिर मुझसे ये बोला
तपती दोपहर को देखा है
बारिश को बरसते देखा है,
सावन में तेरे इंतजार में
महबूब को तड़पते देखा है।
बरखा से सूखी धरती की
प्यास को बुझते देखा है,
चेहरे पर विरह की वेदना में
महबूब को सिसकते देखा है।
सावन के भरे तालाबों में
मेढक को उछलते देखा है,
हाथ में कागज की नाव लिए
महबूब को चहकते देखा है।
बारिश में टूटी छत के नीचे
छिनता एक बचपन देखा है,
बूंदों से भीगे उस चेहरे पर
लबों पर तेरा नाम देखा है।
बहुत बातें है तुझे बताने को
उसको करीब से देखा है,
सावन के रिमझिम मौसम में
मिलने को तड़पते देखा है।।

