वो दास्तानें
वो दास्तानें
मैं लिखता हूँ वो कविताएँ,
जो बयाँ करती हैं —
अनकही, अनसुलझी दास्तानें।
वो दास्तानें...
जो तुमने और मैंने,
मिलकर रची थीं —
ख़्वाबों की स्याही से,
जज़्बातों के काग़ज़ पर।
वो दास्तानें...
जब हम पहली बार मिले,
फिर अनजाने में तुम मिले,
जैसे किस्मत ने
दो बार लिखा हो एक नाम।
वो दास्तानें...
जब हँसी की लहरों के बीच,
आँसू भी बह चले —
और चाँदनी रातों में,
सन्नाटा बोल उठा।
जब शहर की गलियाँ
वीरान हो गईं,
और भीड़ में भी
हम तनहा हो गए।
उन दास्तानों में बहती थी
प्रेम की गहरी नदियाँ,
जिनके तल में छिपे थे
टूटे सपनों के पत्थर।
कुछ हिम्मतें थीं —
जो टूटकर बिखर गईं,
कुछ कोशिशें थीं —
जो अधूरी रह गईं।
कुछ लम्हें थे —
जो गुज़र गए चुपचाप,
एक तिनका था —
जो डूब गया ख्वाबों के साथ।
वक़्त चला गया…
हम बिखर गए,
मन तो मिले थे —
पर हाथ छूट गए।
और शायद,
वक़्त भी उस दिन रोया होगा…
क्योंकि वो जानते थे —
हम मिले ही थे,
बस बिछड़ने के लिए।

