ज़ख़्म-ए-दिल
ज़ख़्म-ए-दिल
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222
यूँ ख़ुद से रूबरू ना होते, अगर तुम नहीं मिलते,
न होती आफ़ताब-ए-रौशनी, तो गुल नहीं खिलते।
कि जब महबूब ही दवा हो, ये दर्द-ए-दिल की सुन लो तुम,
मुहब्बत में मिले जो फिर, वो ज़ख़्म-ए-दिल नहीं सिलते।
वही प्यार होता लज़्ज़तदार, जिसमें मीठी हो तकरार,
खफ़ा होते हैं यूँ फिर, एक दुजे को प्यार से मनाते।
गुनाहों का तू तौबा करले, तुझको बख़्श देगा रब,
है जन्नत पाते जो राह-ए-सदाक़त पर ही है चलते।
न होना ख़ौफ़ज़दा तू, बाज़ ख्वाबों के बिखरने से,
हक़ीक़त बनते 'ज़ोया' ख़्वाब जो आँखों में हैं पलते।
20 August 2021 / Poem 34
