दिलनशीं
दिलनशीं
वो पूछते है क्यों हो गुमसुम, आँखों में क्यों है नमी?
वो ज़िन्दगी में है नहीं, कहते हैं किस की है कमी!
करनी है उनसे ढ़ेर सारी गुफ़्तगू यूँ तो मगर,
आती नहीं होठों पे, दिल में बात वो जो है दबी।
वादें वो करता झूठे, ये मैं हूँ बख़ूबी जानती,
फ़िर भी न जाने क्यों, मैं उस पे कैसे रखती हूँ यकीं।
पहली सी ख़्वाहिश और वो ही मेरी चाहत आख़री,
कब्ज़ा खयालों पे है, दिल में है बसा वो दिलनशीं।
वो है चरागाँ-ए-निशात यूँ ज़िन्दगी का ही मेरी ,
है तीरगी-ए-शब में 'ज़ोया' की वो है इक रौशनी।
[चरागाँ-ए-निशात=खुशियों का दीपोत्सव / तीरगी-ए-शब=रात का अँधेरा]
