चाहत तेरी
चाहत तेरी
न जाने क्या है तिरी इन नशीली आँखों में,
बड़ी मिठास है तेरी ये शीरीं बातों में।
कि जब मैं उलझा हूँ ये ज़िन्दगी की उलझन में
मुझे बड़ा सुकूँ मिलता तिरी ये बांहों में।
यूँ गूँज इसकी है मदहोश कर मुझे जाती
जो पहनी हैं तू ने पायल ये गोरे पैरों में।
महकती है तेरे गीले बदन की ख़ुशबू यूँ,
कि घुल सी जाती है चाहत तेरी हवाओं में।
ए साक़ी सुन मुझे मयख़ाने की ज़रूरत क्या
नशा है मिलता मेरे हमनशीं के होंठों में।
मरे हुए को ले ही जाओ तुम ऐ मलिक-उल-मौत,
कि मर चुके तो है कबके यूँ हर अदाओं में।

