ग़ज़ल ग़ज़ल
कितने फुर्क़त के सदमें उठाने पडे,गम से दो चार हुए अश्क-ए-तर में रहे। कितने फुर्क़त के सदमें उठाने पडे,गम से दो चार हुए अश्क-ए-तर में रहे।
नया फिर जख़्म खाता हूँ...... नया फिर जख़्म खाता हूँ......
अच्छी नहीं लगती.... अच्छी नहीं लगती....
न चमन न वतन चाहिए मुझे तो बस तिरंगे का कफन चाहिए न चमन न वतन चाहिए मुझे तो बस तिरंगे का कफन चाहिए