ग़ज़ल
ग़ज़ल
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हँसने वाले वो हमारी नज़र में रहे,
हम भी हँसती मचलती असर में रहे।
घर बनाने काअपना तो सपना रहा,
पर अकेले ही हम सूने से घर में रहे।
साथ चलने की ख़्वाहिश ने पाला हमें
फिर भी तनहा अकेले सफर में रहे।
अभी भी जाते अगर वो लगाते गले,
ये फसाने मगर मुख्तसर में रहे।
कितने फुर्क़त के सदमें उठाने पडे,
गम से दो चार हुए अश्क-ए-तर में रहे।
रस्म-ए-दुनिया का करते रहे पास वो,
यूँ ज़माने के मासूम वो डर में रहे।
