Jalpa lalani 'Zoya'

Abstract

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Jalpa lalani 'Zoya'

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हमसा कहाँ मिलेगा

हमसा कहाँ मिलेगा

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221  2122  221  2122

ढूँढेगा गर तू, फ़िर भी  हमसा कहाँ मिलेगा,

मेरी  रज़ा  तुझे जा,  मुझसा  जहाँ  मिलेगा।


बाहर निकल तो, ज़्यादा मिलते रक़ीब ही है,

देखो  तो  दोस्तों  का,  ना  कारवाँ  मिलेगा।


क्यों ढूँढे  उसको तू, रब के रूप  में है घर में,

'माँ' में है बसता,वो रब तुझको यहाँ मिलेगा।


करके  गुनाह  मुज़रिम, पर्दे  को ही  गिरा दे,

वैसा ही शख़्स अक्सर,तुझको निहाँ मिलेगा।


जो महफ़िलों में खुश आता है नज़र यूँ हरदम

अक्सर वही तो दिल ओ मन से तन्हा मिलेगा।


इक के  बगैर  दूजे की  अहमियत  न  होती,

अंधेरा   हो   उजाला  बेशक  वहाँ   मिलेगा।

19th November 2021 / Poem 47


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