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ritesh deo

Abstract

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ritesh deo

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शायद कभी

शायद कभी

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शायद कभी . - कभी किसी के बेरुखी बहुत ही खतरनाक होती है

आस मैं बैठा रहता है मन लेकिन उसे मिलने की तनिक भी न आस होती है।

जब कोई खता ही नहीं तो किस बात पर सजा मिले दिल कहाँ जान पाता

और बेवफा के रुखसत सहकर उसे अभी भी अपना ही मान पाता

दिल करती है प्रतिक्षाएँ, मन कहे निश्चय मिलन हमारा

दिल तो बेचारा दिल इस आस में कई साल गुजारा

जब तुनीर खाली हो चुकी बचा सिर्फ तरकश है

तो फिर लगा दिल को भाई कुछ गड़बड़ है

सब्र की भी सीमा है सीमित आघात ही सहती है

यदि बार - बार नकारा जाए तो धीरे से कुछ कहती है

पुनः मन हुआ जागृत सच्चाई जानना चाहा

ये क्या जिसके लिए उसने इतना संसार सजाया

उसको दूसरे के छत पर ताड़े गिनते पाया

धधक उठी ज्वाला लेकिन मन को रोक न पाया ।

बेचारा गिरा विक्षोभ लिए देख प्रकृति की अद्भुत माया ।

अब तो अश्रु दिन रात अपना खेल दिखाते

सामने कोई रहे भी तो बेशर्म वहाँ भी आ जाते

अब देखिए आगे क्या होता है।

                  


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