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ritesh deo

Romance

4  

ritesh deo

Romance

जीवनासाठी

जीवनासाठी

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उसने जब जीवनसाथी चुनने की बात सोची, तो ये सिर्फ एक सामाजिक औपचारिकता नहीं रही, बल्कि एक गहरे अस्तित्व की तलाश बन गई। किसी दूसरे के साथ साझा जीवन की कल्पना करते हुए वह खुद से टकराया, जैसे प्लेटो की आत्मा के दो टुकड़े अपने संपूर्ण रूप की खोज में हों। मन की परतें खुलती गईं—जैसे फ्रायड के अचेतन में दबे हुए भय, आशाएं, और अधूरी इच्छाएँ एक उपयुक्त साथी की आकृति में आकार ले रही हों।

प्रेम और विवाह—ये महज़ भावनात्मक निर्णय नहीं, बल्कि चेतन और अचेतन मन के बीच की एक सतत क्रिया है। जंग के मानस के गहरे जल में उतर कर उसने जाना कि हम जो चुनते हैं, वह केवल बाहर का कोई नहीं होता, बल्कि स्वयं के भीतर दबे प्रतीकों, स्मृतियों, और कामनाओं का प्रतिबिंब होता है।

वह जानता था कि जीवन एक क्षणिक आवेग नहीं, एक दीर्घकालिक यात्रा है। इसलिए साथी चुनने की प्रक्रिया भी क्षणिक नहीं हो सकती। वह क्षण जब वह किसी की आँखों में झाँकता, वह केवल "अभी" को नहीं देखता था, बल्कि उस "अभी" के पीछे छुपे "भूतकाल" और आने वाले "भविष्य" की एक झलक पकड़ता था। अस्तित्ववाद यहाँ मौन होकर भी उसकी सोच में सक्रिय था—सार्त्र के उस विचार की तरह कि हम पहले खुद को गढ़ते हैं, फिर किसी के साथ संबंध बनाते हैं।

हर पसंद, हर नापसंद, जैसे ही उसके निर्णय में घुलने लगे, वैसे ही वह खुद को खोजने लगा। उसकी चेतना, जो अब तक बिखरी हुई थी, अब एक केंद्र पा रही थी। उसने जाना कि प्रेम, समर्पण, समझदारी—ये सब कोई आदर्श नहीं, बल्कि हर दिन के छोटे-छोटे कार्यों में खिलते दर्शन हैं। हीगल के द्वंद्वात्मक यथार्थ की तरह, जहां दो विचारों के संघर्ष से ही सत्य निकलता है, वैसे ही दो आत्माओं के भिन्न विचारों के मध्य तालमेल से ही वास्तविक प्रेम की संरचना होती है।

उसके भीतर एक गहरा ऐतिहासिक बोध भी जागा। पीढ़ियों की शादियाँ, उनके अंत, उनके सबक—उसके निर्णय में एक अदृश्य परंपरा बनकर शामिल हो गए। वह जानता था कि वह अकेला नहीं है, उसकी पसंद और उसका रिश्ता एक समकालीन इतिहास की इबारत लिखेगा, जो भविष्य को भी दिशा देगा।

समझौते अब उसे कमजोरी नहीं लगे, बल्कि जैसे कांट के नैतिक दायित्व की भांति, एक आंतरिक विवेक की पुकार लगे। ‘त्याग’ अब उसे पराजय नहीं, बल्कि स्व की अतिक्रमण लगा—जहाँ स्वयं को थोड़ा पीछे रखकर, किसी और की मुस्कान को अपने आनंद का आधार बना लेना ही प्रेम की सर्वोच्च स्थिति बन गया।

उसके रिश्ते में ‘दूरी’ भी आई, पर वह अब नेगेटिव स्पेस नहीं रही—बल्कि जैसे कला में खाली जगह भी आकार का हिस्सा होती है, वैसे ही यह दूरी संवाद का हिस्सा बन गई। उसने महसूस किया कि सच्चा संबंध वहीं होता है जहाँ चुप्पी भी बोलती है, और मौन भी सुनाई देता है।

सम्बन्ध अब उसे एक प्रतियोगिता नहीं लगे। पत्नी की आंखों में उसे अपनी अधूरी चेतना की परछाई दिखी, और उसके हाथ की छुअन में वर्तमान की शाश्वतता। यह वह क्षण था जब मनोविज्ञान दर्शन से मिल गया, जब हर भाव, हर विचार, हर स्पर्श—उसके अस्तित्व का अभिन्न हिस्सा बन गया।

और तब जाकर, उसने जाना कि विवाह कोई अंत नहीं, बल्कि स्वयं को पाने की शुरुआत है—वह यात्रा जिसमें दो आत्माएं एक-दूसरे के माध्यम से खुद को समझती हैं, गढ़ती हैं और अंततः एक दूसरे के भीतर निवास कर जाती हैं।

यही था उसका विवाह—न कोई अनुबंध, न कोई परंपरा का बोझ, बल्कि एक दर्शन, एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया, और एक अस्तित्व की पुकार का उत्तर।


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